Wednesday, December 26, 2012

सागर....

मंद वारा, धुंद तरुणाई
मनीच्या निळसर चांदव्याचे आगर
सागर....

उसळत्या लाटा, घोंघावते तूफान
भयंकर उग्र, रौद्र...
समुद्र....

मायाळू, दयाळू, प्रेमळ
कोल्यांचा हा इष्ट कृपाकर
समिंदर....

अहो, मनुष्यच काय!
देवांनीही, ज्याचे चाचपले उदर
रत्नाकर....

चल, अविचल, रत निरंतर
सतत कार्यरत ज्याची भार्या
दर्या....

असीम, अथांग, प्रचंड
शांत, निवांत, निपचित अजगर
महासागर....!

No comments:

Post a Comment

एक रंग की चाहत

जो बरसों से चाहा था  आज हमने पाया हैं  फिर उसे पाकर क्यूँ कलेजा मुंहमें आया हैं सपना था दुनिया का जिसमें कुछ ऐसा हो गुलीस्तामें हर गुल का रं...