कहीं दूर तुम जंगल में
रहते हो निबिड़ वनमें
एक बार जो दृक हुए
बस जाते हो फिर मनमें
गाती बूँदे एक स्वर में
झरझर चोटीसे झरती
और सुनाती हैं सृष्टीको
अपनी कलकल गिरती
ऊंचे पहाड़ोसे रिसते
लाते जलवर्षा हो दूधी
रूप अपना बदलकर
बन जाते हो एक नदी
झरने, हो महान गिरकर
तुम, हमको ये हैं सीखना
समर्पित भावसे अपनेको
निःसंकोच झोंक देना
- मुग्धा संदीप चांदणे (रविवार, २०/०४/२०२५)
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