Sunday, April 20, 2025

पक्षीकुमार

भिन्नभिन्न रंगोसे मलकर
पर अपने लहराते हो
काया अतिसुंदर है तुम्हारी
पक्षीकुमार कहलाते हो

कैसे न हो कोई विमुग्ध
छवि जैसी तुम पाये हो
हर्षभरित हो जाते जन
जब, नृत्यमुद्रा बनाते हो

सावन का मौसम जब आता
खिल खिल यौवन आते हो
नभ-धरती के मधुर मिलनसे
खुद रोमांचित हो जाते हो

प्रियतम अपनी को देखकर
वहीं रूप तुम धरते हो
जिसे देखने मन मानवका
लालायित तुम करते हो

यूँ तो सृष्टीमें खग अनेक
पर, चित्रोंमे तुम सजते हो
कान्हाकेभी साथ युगोंसे
ओ, मयूर तुम रहते हो!

- मुग्धा संदीप चांदणे (रविवार, २०/०४/२०२५)




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