Friday, May 30, 2025

बूंद की गाथा

बूंद की गाथा.

बूंद जो मेघ से मय तक पहुंची.


यह एक बूंद की गाथा है जो इस पृथ्वीपर मौजूद हर सजीव के जीवन का अविभाज्य भाग हैं. आमतौर पर इसे देखा नहीं जाता, इसके समूचे जमा रुप को ही जाना और देखा जाता हैं. जीवनके कुछ ख़ास क्षणोंमेंही इन्हे देखा और महसूस किया जा सकता है. लेकिन इसके लिए आपको अलग दृष्टी अपनानी पड़ती है और जीवन की आपाधापीमें आम आदमी कहाँसे लाए ऐसी अलग दृष्टी? इसीलिए कुछ शब्दोंको चुनकर उन्हें एक धागे में पिरोकर ये काव्यमाला आपके संमुख प्रस्तुत कर रहा हूँ. आशा है मेरी दृष्टी से कुछ बूंदे देख वहीं आनंद की अनुभूती आपकोभी होगी जो मुझे लिखते समय हुई थी.


और एक बात, यह केवल एक काव्यसंग्रहही नहीं हैं, एक यात्रा के अनुभवका साहित्यिक दर्पण है. इसमें आप मेघसे गिरते वर्षाकी बूंदसे जामके प्याले में छलकती बूंद तक का सफर दिखाई पड़ेगा. वर्षा की बूंद, ओसकी बूंद, पूजा अभिषेक में गिरती धारा की बूंद और प्यारमें बहते आंसूकी अनमोल बूंद इन सभीकी नयेसे पहचान होगी.


यदि इसे पढ़कर किसी वाचकके मनमे अपने जीवनसे कोई याद, कोई पीड़ा कोई प्याला छलकके आ जाये तो इस "बूंद"का कार्य पूर्ण हुआ ऐसा मैं समझूंगा.



बूंद-१

बूंद बूंद मेघ में हैं भरी

आकाश से धरा पर गिरी

बूंद एक कमतर हैं नहीं

नदिया ताल दर्या भर चली


बूंद बरसती हैं कभी जब

पनियाई झुकी अखियोंसे

हृदय में पीड़ा है उठती

मानें जहान गलता हो जैसे


बूंद बूंद एकसी हैं दिखती

मायने पर हजार परखती

प्रेमी रखता है विरह में

कहीं इबादत में गिर जाती


गुलपे सजती शबनम बनकर

किसी पेड़के फ़लसे रिसती

साकी के प्यारभरे प्याले से

मय कहलाती और छलकती


बूंद-२

ऐ बूंद अब आ तू उतरकर

काले घन की उंगली छोड़

अवनीपर माटी के कणमें

है तुझसे मिलने की होड़


सूख चुका हैं भुना पड़ा हैं

अब ना हो उससे धूप सहन

झरझर सरसर ऐसे उतर

गीली शीतलता को पहन


कई पेड़ और पौधे भी तो

भूरे बनकर खड़े हुए हैं

बहा ले जा तू उन पत्तोंको

ढेर बनकर पड़े हुए हैं


दे बदल सब सृष्टि का रंग

हरा हरा सबकुछ तू कर दे

सूखी सरिता और सरोवर

मिल आ, इन सबको तू भर दे


चार मासभर एक वर्ष के

मधुर बजता साज बन जा

हर सवेरे उजालोंके संग

झिममिलाती ओस बन जा



बूंद-३

गजब हुआ आज मैंने क्या देख लिया

उन आखोंमें एक बूंद आंसू देख लिया


गुमान था कभी चमचमाते मोतीपर

मोतीसे भी क़ीमती रतन देख लिया


यूं अगर ये बूंदे गिरकर होंगी ज़ाया

मैं बन जाऊ मुफ़लिस मैंने देख लिया


पलकपे खड़ी जो तेरी आंसूकी बूंद

संदूक का हो बंदोबस्त ये देख लिया



बूंद-४

लगा आंसूकी झड़ी निरंतर

उसपर रुदन करुण सिसकके

बहाकर बिरहाकी वो बूंदे

हो गए सूखे नयन हैं उसके


कोई मुराद पूरी हो जाये

आस लिए मनमें वो रोता

बूंद-बूंद देवों के सिर पर

अभिषेक जलका कर आता


कोई खर्चता बूंदे टपटप

झरझर कोई सिरपे चढ़ाता

बिरहाकी हो या पूजाकी

पावन मैं उन दोनोंको पाता



बूंद-५

बूंद सुनहरी पाती पाती

सुबहको शबनम बन जाती

ओढ़कर किरणों को बदनपे

जैसे हो गहना, इतराती


चूमकर सारे फूलोंके डेरे

दुपहरी में चुपकेसे जाये

अगली सुबह मिलने को

ठंडी सदा हवा संग आये


बूंद-६

रंगीन महफ़िल में रौनक भर

रुहभीगाती बूंदे मिल जाती हैं

समां नशीला बन जाते ही, एक

नज्म लबोंपर छलक आती हैं


पर दो आँखों से उपर हो

नशा वो ऐसा नहीं जरा रे

अभी तक उतरा नहीं तो

नया ख़ुमार हम कहाँ भरे?


रिसता मैं कोरा जाम देखूँ 

जब उसकी आँखों को देखूँ

बूंद भी उसकी न हो जाया

इतना होश में रहूं ये देखूँ


- संदीप भानुदास चांदणे (शुक्रवार, ३०/०५/२०२५) 

Wednesday, May 28, 2025

एक अर्थहीन गजल

आहे अंगणात वारा, निवारा घरात आहे
तरी माजला कल्लोळ कसला मनात आहे?

रोज तसाच दिवस, तसलीच रात्रही येते
बदलून नव्या फक्त दुःखाची आयात आहे

कुठलाच सूर आनंदी येईना बासरीतून
इतकी उदासवाणी माझी हयात आहे

सूर्याची दैवी थाळी गोष्टीमध्येच राहिली
आता उघड्यावर उपडी माझी परात आहे

मदतीस धावणारे आता ना पाय दिसती
दिसते ती निघालेली कोडगी वरात आहे

- संदीप भानुदास चांदणे (बुधवार, २८/०५/२०२५)

Thursday, May 15, 2025

बे-मनू हूँ

काली रात के दामनसे लिपटा फिरू वो मजनू हूँ
झुलसकर खुद करू रोशन जंगल जंगल वो जुगनू हूँ

चल रहा चारों ओर इंतिहाई शोर-ओ-गुल मुसलसल
चले कहीं कोलाहल जगमें, मैं अपने में मगनू हूँ

रखी थीं एक बेवकूफी पास ज़माने दर ज़माने मैंने
अब आशना हूँ वक़ूफ़ी से अब जब मैं बे-मनू हूँ


- संदीप भानुदास चांदणे (गुरूवार, २९/०५/२०२५)

Wednesday, May 14, 2025

एक रंग की चाहत

जो बरसों से चाहा था 
आज हमने पाया हैं 
फिर उसे पाकर क्यूँ
कलेजा मुंहमें आया हैं

सपना था दुनिया का
जिसमें कुछ ऐसा हो
गुलीस्तामें हर गुल का
रंग बस एक जैसा हो

एक रंगसे सराबोर
हो उठा जब चमन सारा
दुबकते कोई कह रहा
हटा दो ये नजारा

थी गलत वो आरजू
गलत वो बयानी थी
कहते है आवाम जिसे
गलत वो सयानी थी

रंग मिटाने की ख्वाईश
जिस किसीने बताई थी
कुदरत की दुनियासे
उसकी जाती लडाई थी

पर उस लडाई में
खिंच वो सब लाया 
एक रंग की चाहतमें
गुलीस्ता मगर मुरझाया

- संदीप भानुदास चांदणे (बुधवार, १५/०५/२०२५)

Saturday, May 3, 2025

Man and book

Man slowly was becoming man
Once alone then part of a clan

He learned to speak, he carved the wheel,
Left the cave, built home, found the feel

Then language bloomed words came by
Stone to scroll thoughts go high

A clever man then wrote God down
Said “Give your mind, kneel, bow, drown”

Man heard mind, felt brain
Made no word, thought it sane

When man asked man a question true
He pointed to a book, said, “find answers due”

When man begged for mercy, soft and bare
Man hastily flipped pages, searching there

Man then tried to simply live, said, "I am, me!"
But the book screamed "That's blasphemy!"

Awake or asleep, eating or praying,
The book kept watch, no room for straying

Can man ever get that brain back again?
Will man ever feel, another man's pain?

- Sandeep Bhanudas Chandane (Saturday, 03/05/2025)

माणूस आणि पुस्तक

माणूस हळूहळू माणूस होत होता
आधी एकटा, पुढे कळप होत होता

मग बोलायला शिकला, चाक बनवले
गुहा सोडून घरात आला, गाव बनवले

नंतर संवादासाठी भाषा विकसीत झाली
त्याच्याही पुढे जाऊन लेखनकला आली

हुशार माणसाने आधी लिहून काढला देव
त्यातून माणसालाच म्हणाला डोकं इथे ठेव

माणसाला डोकं म्हणजे मेंदूच वाटला
डोकं नि मेंदूत जरा गल्लत करून बसला

माणसाने माणसाला काही प्रश्न विचारले
माणसाने पुस्तकाकडे सरळ बोट दाखवले

माणसाने माणसाकडे दयेची भीक मागितली
माणसाने पुस्तकात कुठे सापडते का बघितली

माणसाने सगळं सोडून जगण्याचा प्रयत्न केला 
माणसाला हा पुस्तकाचा घोर अपमान वाटला

उठता-बसता, खाता-पिता, जागेपणी-झोपता
पुस्तकातून माणसाचा माणसावर पहारा जागता

पुस्तकापुढे ठेवलेला मेंदू परत मिळेल का?
माणसातला माणूस माणसाला दिसेल का?

- संदीप भानुदास चांदणे (शनिवार, ०३/०५/२०२५)

बूंद की गाथा

बूंद की गाथा. बूंद जो मेघ से मय तक पहुंची. यह एक बूंद की गाथा है जो इस पृथ्वीपर मौजूद हर सजीव के जीवन का अविभाज्य भाग हैं. आमतौर पर इसे देखा...