बूंद की गाथा.
बूंद जो मेघ से मय तक पहुंची.
यह एक बूंद की गाथा है जो इस पृथ्वीपर मौजूद हर सजीव के जीवन का अविभाज्य भाग हैं. आमतौर पर इसे देखा नहीं जाता, इसके समूचे जमा रुप को ही जाना और देखा जाता हैं. जीवनके कुछ ख़ास क्षणोंमेंही इन्हे देखा और महसूस किया जा सकता है. लेकिन इसके लिए आपको अलग दृष्टी अपनानी पड़ती है और जीवन की आपाधापीमें आम आदमी कहाँसे लाए ऐसी अलग दृष्टी? इसीलिए कुछ शब्दोंको चुनकर उन्हें एक धागे में पिरोकर ये काव्यमाला आपके संमुख प्रस्तुत कर रहा हूँ. आशा है मेरी दृष्टी से कुछ बूंदे देख वहीं आनंद की अनुभूती आपकोभी होगी जो मुझे लिखते समय हुई थी.
और एक बात, यह केवल एक काव्यसंग्रहही नहीं हैं, एक यात्रा के अनुभवका साहित्यिक दर्पण है. इसमें आप मेघसे गिरते वर्षाकी बूंदसे जामके प्याले में छलकती बूंद तक का सफर दिखाई पड़ेगा. वर्षा की बूंद, ओसकी बूंद, पूजा अभिषेक में गिरती धारा की बूंद और प्यारमें बहते आंसूकी अनमोल बूंद इन सभीकी नयेसे पहचान होगी.
यदि इसे पढ़कर किसी वाचकके मनमे अपने जीवनसे कोई याद, कोई पीड़ा कोई प्याला छलकके आ जाये तो इस "बूंद"का कार्य पूर्ण हुआ ऐसा मैं समझूंगा.
बूंद-१
बूंद बूंद मेघ में हैं भरी
आकाश से धरा पर गिरी
बूंद एक कमतर हैं नहीं
नदिया ताल दर्या भर चली
बूंद बरसती हैं कभी जब
पनियाई झुकी अखियोंसे
हृदय में पीड़ा है उठती
मानें जहान गलता हो जैसे
बूंद बूंद एकसी हैं दिखती
मायने पर हजार परखती
प्रेमी रखता है विरह में
कहीं इबादत में गिर जाती
गुलपे सजती शबनम बनकर
किसी पेड़के फ़लसे रिसती
साकी के प्यारभरे प्याले से
मय कहलाती और छलकती
बूंद-२
ऐ बूंद अब आ तू उतरकर
काले घन की उंगली छोड़
अवनीपर माटी के कणमें
है तुझसे मिलने की होड़
सूख चुका हैं भुना पड़ा हैं
अब ना हो उससे धूप सहन
झरझर सरसर ऐसे उतर
गीली शीतलता को पहन
कई पेड़ और पौधे भी तो
भूरे बनकर खड़े हुए हैं
बहा ले जा तू उन पत्तोंको
ढेर बनकर पड़े हुए हैं
दे बदल सब सृष्टि का रंग
हरा हरा सबकुछ तू कर दे
सूखी सरिता और सरोवर
मिल आ, इन सबको तू भर दे
चार मासभर एक वर्ष के
मधुर बजता साज बन जा
हर सवेरे उजालोंके संग
झिममिलाती ओस बन जा
बूंद-३
गजब हुआ आज मैंने क्या देख लिया
उन आखोंमें एक बूंद आंसू देख लिया
गुमान था कभी चमचमाते मोतीपर
मोतीसे भी क़ीमती रतन देख लिया
यूं अगर ये बूंदे गिरकर होंगी ज़ाया
मैं बन जाऊ मुफ़लिस मैंने देख लिया
पलकपे खड़ी जो तेरी आंसूकी बूंद
संदूक का हो बंदोबस्त ये देख लिया
बूंद-४
लगा आंसूकी झड़ी निरंतर
उसपर रुदन करुण सिसकके
बहाकर बिरहाकी वो बूंदे
हो गए सूखे नयन हैं उसके
कोई मुराद पूरी हो जाये
आस लिए मनमें वो रोता
बूंद-बूंद देवों के सिर पर
अभिषेक जलका कर आता
कोई खर्चता बूंदे टपटप
झरझर कोई सिरपे चढ़ाता
बिरहाकी हो या पूजाकी
पावन मैं उन दोनोंको पाता
बूंद-५
बूंद सुनहरी पाती पाती
सुबहको शबनम बन जाती
ओढ़कर किरणों को बदनपे
जैसे हो गहना, इतराती
चूमकर सारे फूलोंके डेरे
दुपहरी में चुपकेसे जाये
अगली सुबह मिलने को
ठंडी सदा हवा संग आये
बूंद-६
रंगीन महफ़िल में रौनक भर
रुहभीगाती बूंदे मिल जाती हैं
समां नशीला बन जाते ही, एक
नज्म लबोंपर छलक आती हैं
पर दो आँखों से उपर हो
नशा वो ऐसा नहीं जरा रे
अभी तक उतरा नहीं तो
नया ख़ुमार हम कहाँ भरे?
रिसता मैं कोरा जाम देखूँ
जब उसकी आँखों को देखूँ
बूंद भी उसकी न हो जाया
इतना होश में रहूं ये देखूँ
- संदीप भानुदास चांदणे (शुक्रवार, ३०/०५/२०२५)