आज हमने पाया हैं
फिर उसे पाकर क्यूँ
कलेजा मुंहमें आया हैं
सपना था दुनिया का
जिसमें कुछ ऐसा हो
गुलीस्तामें हर गुल का
रंग बस एक जैसा हो
एक रंगसे सराबोर
हो उठा जब चमन सारा
दुबकते कोई कह रहा
हटा दो ये नजारा
थी गलत वो आरजू
गलत वो बयानी थी
कहते है आवाम जिसे
गलत वो सयानी थी
रंग मिटाने की ख्वाईश
जिस किसीने बताई थी
कुदरत की दुनियासे
उसकी जाती लडाई थी
पर उस लडाई में
खिंच वो सब लाया
एक रंग की चाहतमें
गुलीस्ता मगर मुरझाया
- संदीप भानुदास चांदणे (बुधवार, १५/०५/२०२५)
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