Wednesday, May 14, 2025

एक रंग की चाहत

जो बरसों से चाहा था 
आज हमने पाया हैं 
फिर उसे पाकर क्यूँ
कलेजा मुंहमें आया हैं

सपना था दुनिया का
जिसमें कुछ ऐसा हो
गुलीस्तामें हर गुल का
रंग बस एक जैसा हो

एक रंगसे सराबोर
हो उठा जब चमन सारा
दुबकते कोई कह रहा
हटा दो ये नजारा

थी गलत वो आरजू
गलत वो बयानी थी
कहते है आवाम जिसे
गलत वो सयानी थी

रंग मिटाने की ख्वाईश
जिस किसीने बताई थी
कुदरत की दुनियासे
उसकी जाती लडाई थी

पर उस लडाई में
खिंच वो सब लाया 
एक रंग की चाहतमें
गुलीस्ता मगर मुरझाया

- संदीप भानुदास चांदणे (बुधवार, १५/०५/२०२५)

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