काली रात के दामनसे लिपटा फिरू वो मजनू हूँ
झुलसकर खुद करू रोशन जंगल जंगल वो जुगनू हूँ
चल रहा चारों ओर इंतिहाई शोर-ओ-गुल मुसलसल
चले कहीं कोलाहल जगमें, मैं अपने में मगनू हूँ
रखी थीं एक बेवकूफी पास ज़माने दर ज़माने मैंने
अब आशना हूँ वक़ूफ़ी से अब जब मैं बे-मनू हूँ
- संदीप भानुदास चांदणे (गुरूवार, २९/०५/२०२५)
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