Tuesday, November 21, 2017

एक सल नेहमीच - भावानुवाद

एक सल नेहमीच - भावानुवाद

एक दरवळ नेहमीच
अंगावरून जातो
डोळ्यांदेखत नेहमीच
एक काठ नदीचा भरतो
एक नाव नेहमीच
किनाऱ्याशी थडकते
एक रीत मला नेहमीच, लांबून खुणावते
मी आहे तिथेच बसतो
एक दृश्य नेहमीच, धूळीत साकार होते

एक चंद्रही नेहमीच
खिशात सापडतो
धिटुकली खार झाडावर
सूर्य गिळून घेते
हे जग तेव्हा नेहमीच
वाटाण्याएवढे भासते
एका तळहातावर जणू अलगद मावते
मी आहे तिथून उठतो
एक रात्र नेहमीच, मुंगीच्या पावलांनी येते

एक हसणे नेहमीच
झुळूकीसारखे वाटते
एक नजर नेहमीच
उबदार कानटोपी चढवते
एक गोष्ट नेहमीच
पर्वतासारखी दिसते
एक नीरवता नेहमीच
मला गुंडाळून ठेवते
मी जिथे असतो तिथून चालू लागतो
एक सल नेहमीच, प्रवास होऊन बसतो

- संदीप चांदणे (२१/११/२०१७)

मूळ कविता

अक्सर एक व्यथा

अक्सर एक गन्ध
मेरे पास से गुज़र जाती है,
अक्सर एक नदी
मेरे सामने भर जाती है,
अक्सर एक नाव
आकर तट से टकराती है,
अक्सर एक लीक
दूर पार से बुलाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहीं पर बैठ जाता हूँ,
अक्सर एक प्रतिमा
धूल में बन जाती है ।

अक्सर चाँद जेब में
पड़ा हुआ मिलता है,
सूरज को गिलहरी
पेड़ पर बैठी खाती है,
अक्सर दुनिया
मटर का दाना हो जाती है,
एक हथेली पर
पूरी बस जाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहाँ से उठ जाता हूँ,
अक्सर रात चींटी-सी
रेंगती हुई आती है ।

अक्सर एक हँसी
ठंडी हवा-सी चलती है,
अक्सर एक दृष्टि
कनटोप-सा लगाती है,
अक्सर एक बात
पर्वत-सी खड़ी होती है,
अक्सर एक ख़ामोशी
मुझे कपड़े पहनाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहाँ से चल पड़ता हूँ,
अक्सर एक व्यथा
यात्रा बन जाती है ।

- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

रोशनदान

कभी हुआ करता था जो एक शानदार मेहराबदार रोशनदान आज उसकी शान-ओ-शौकत एक पान की दुकान नोचती हैं उस ठेलेपर तो जमघट लगताही होगा बेकदरदान जमाने का ...