आज उसकी शान-ओ-शौकत एक पान की दुकान नोचती हैं
उस ठेलेपर तो जमघट लगताही होगा बेकदरदान जमाने का
लेकीन, अब उनके लबोंपर पुरानी सुर्ख सादगी कहाँ रहती हैं
हमें अक्सर वहाँसें आवाजें सुनाई पडती हैं कुछ यूं कहती हुई
दिवारे खंडहर हुई तो क्या, रईसीकी छाप अब भी झलकती हैं
- संदीप भानुदास चांदणे (रविवार, ४/२/२०२४)
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