Monday, February 12, 2024

रोशनदान

कभी हुआ करता था जो एक शानदार मेहराबदार रोशनदान
आज उसकी शान-ओ-शौकत एक पान की दुकान नोचती हैं

उस ठेलेपर तो जमघट लगताही होगा बेकदरदान जमाने का
लेकीन, अब उनके लबोंपर पुरानी सुर्ख सादगी कहाँ रहती हैं

हमें अक्सर वहाँसें आवाजें सुनाई पडती हैं कुछ यूं कहती हुई 
दिवारे खंडहर हुई तो क्या, रईसीकी छाप अब भी झलकती हैं

- संदीप भानुदास चांदणे (रविवार, ४/२/२०२४)

नाकाम मुहब्बत का इनाम हो तुम

किसी नाकारा दुवा की इंतेहा हो तुम कयामत है के अभी तक जिंदा हो तुम सामने आती हो तो यकी नही आता लगता है खुली आंखो का सपना हो तुम अंजाम मुफ्लीस...