Friday, April 28, 2017

प्रेमवस्त्र

भेटली अशी एके दिवशी
लख्ख उन्हात थेंबाच्या राशी
दाटले मनी नाना प्रश्न
कळेना हे वास्तव की स्वप्न
    चेहऱ्यावरचे भाव हरवले
    स्तब्ध होऊनी थिजलो जागी
    शिल्प शिळेवर जणू कोरले!

डोळ्यातला निर्धार स्पष्ट
हाती घेतलेला हात घट्ट
साथ माझी मागत होती
हवेहवेसे सांगत होती
    शब्द मनी काही योजले
    तिला 'नाही' म्हणण्यासाठी
    अळवावरचे स्वप्न पुसले!

दोन थेंब ओघळले खाली
मागून त्यांची झाली दाटी
पापण्या हळुवार झाकून
मानेनेच मी केली खूण
    पळात जणू वर्ष सरले
    कसेबसे विणलेले
    प्रेमवस्त्र, लेण्याआधी विरले!


- संदीप चांदणे (२७/४/२०१७)

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