न जाने कितनी हसरतोंको 'ढो' लिया हमने
पर वो एक ही थी, जिसके लिए 'रो' लिया हमने
कभी बारिश की मार, कभी सुखे की चटकार
इसिलिए बारबार अपने को, 'बो' लिया हमने
कुछ असर इस बेलिहाज जिंदगी का हुआ है
किसीने जगाना चाहा, तब 'सो' लिया हमने
जिंदगी बिती या रेतसी फिसल गई 'रोशन'
अफसोस तो सिर्फ है, बचपन 'खो' लिया हमने
- संदीप भानुदास चांदणे (मंगळवार, ०१/०९/२०२०)
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