ये तुम सोच नही सकती
तुम्हारी सोचको है मर्यादा
अनखिंची अनकही अनसुनी
दुनिया और समाज की सोच से
तुम्हारी सोच मिलनी चाहिए
ये किसीने युगों पहले सोच रखा है
पर आज तक क्यूं इसे ढोया जा रहा है
ये कोई नही सोचता
अब तुम सोच कर देखों
की, मैं भी क्या क्या सोचता हूँ
तुम्हारे लिए, हमारे लिए!
संदीप भानुदास चांदणे (बुधवार, १७/०३/२०२१)
No comments:
Post a Comment