अब क्या बताऊं तुम्हे
क्या करता हूँ मैं अपने खालीपनमे..
अलमारीसे कुछ पुरानी किताबें निकालकर
एक के बाद एक
उन्हें पढ़ने का बहाना करता हूँ
आसपासके सन्नाटेको चुप कराने की
नाकाम कोशीश भी करता हूँ
कुछ बहुतही गैरज़रूरी काम
करने में नाक़ामयाब हो जाने के बाद
फिर अपनेको को समेटके
बैठा रहता हूँ
सर्दी की दोपहरमें
खिडकीसे आती ठंडी हवांमें घुली हुई नरम धूप
सेंकता हुआ
कभी जब हवा अपना आपा खोये
पास से गुजरे तो
बदनकी शाल जरा और कसकर ओढे
मैं गहरी साँस के साथ
उसे सोख लेता हूं
ये मानकर की यहीं हवा
तुम्हारे पाससे भी गुजरकर आयी होगी!
और...
यादोंका सिलसिला
फिर अपना
ताना-बाना लिए
एक नया एहसास बुनने
अपने काममें लग जाता हैं
कहीं आस-पडोसमें
मगर जरा दूर
बेग़ैरत आवाजें अपनी मनमर्जीसे
लहराती रहती हैं
लेकिन,
मैं खो चुका होता हूँ
गुज़रे दिनोके नये मायने तलाशनेमें
सोचता रहता हूँ की
जो हुआ
वो न होकर
कुछ ऐसा हुआ होता
तो अब जिंदगी के मायने क्या होते?
आज जो तनहाई
मेरे सायेसे ज्यादा मेरा साथ देती हैं
वो तुम्हारी हँसीसे डरकर
कभी पास ही न भटकती
जो शाल अभी ओढे बैठा हूँ
इसमे कहीं तुमभी समायी होती
ऐसा लगता हैं मानो
वो हँसीका नाद, लय
बस गूँजती रहती
हो सके तो समयके अंत तक
फिर एकाएक दरवाजे की घंटी
ये बुना-बुनाया यादोंका मफलर
उधेड़ देती हैं
और मैं उठकर
कौन आया होगा इस वक्त
ये सोचता हुआ
दरवाजा खोलने चल पडता हूँ
- संदीप भानुदास चांदणे (रविवार, २८/०१/२०२४)